
Premanand Ji Maharaj Satsang: हर जीव में बसता है भगवान, प्रेमानंद महाराज का करुणा भरा संदेश
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Premanand Ji Maharaj Satsang : हमारी भारतीय संस्कृति में कण कण में ईश्वर की उपस्थिति की बात स्वीकारी जाती है। भारत की संत परंपरा हमेशा से यह कहती आई है कि ईश्वर केवल मंदिरों की दीवारों में सीमित नहीं हैं। वे हर जीव-जंतु, हर प्राणी और हर मनुष्य के भीतर वास करते हैं। (Premanand Ji Maharaj Satsang) हमारे धर्म शास्त्रों में भी कई जगह इस बात का जिक्र प्रमुखता से किया गया है। लेकिन यह तभी संभव है जब व्यक्ति का हृदय सच्चे प्रेम और करुणा की भावना से युक्त हो तभी वह संसार की हर वस्तु और हर प्राणी में भगवान का दर्शन करने में सक्षम होता है। यही संदेश हमें संत प्रेमानंद जी के प्रवचनों और उनके द्वारा सुनाई गई संत नामदेव जी की कथा से मिलता है।
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जब एक कुत्ते में दिखाई दी ईश्वर की छवि
संत प्रेमानंद महाराज ने अपने प्रवचन के दौरान संत नामदेव जी के जीव प्रेम पर कथा सुनाते हुए कहा कि, नामदेव महाराज भगवान विठ्ठल के महान भक्त थे। (Premanand Ji Maharaj Satsang) एक दिन वे ठाकुरजी के लिए रोटियां बनाकर भोग लगाने की तैयारी कर रहे थे। श्रद्धा से भरी रोटियां उन्होंने थाली में सजाईं और सोचा कि उन पर घी चुपड़कर अर्पित करेंगे। तभी पीछे से एक कुत्ता आया और मुंह में रोटियां दबाकर भाग गया। नामदेव जी ने कुत्ते को देखा तो गुस्सा नहीं हुए, बल्कि प्रेम से उसके पीछे दौड़ते हुए बोले – अरे प्रभु! सूखी रोटी मत खाओ, ठहरो, मैं उस पर घी लगा देता हूं।’ तभी अचानक उस कुत्ते का रूप तज कर भगवान विठ्ठल ने प्रकट होकर मुस्कराते हुए कहा ‘नामदेव, तुम्हारा भाव ही मुझे यहां खींच लाया है। तुमने मुझे कुत्ते के रूप में भी पहचान लिया।’
जीव-जंतुओं की सेवा में भगवान की सेवा के समान
संत प्रेमानंद जी संत नामदेव की कथा को सुनाकर समझाते है ईश्वर हर जीव में वास करते हैं। (Premanand Ji Maharaj Satsang) यदि हम जीव-जंतुओं के प्रति करुणा रखते हैं और उन्हें भोजन, सेवा या सहारा देते हैं, तो यह केवल दया नहीं बल्कि भक्ति है। उनका कहना है कि जब हम किसी प्राणी को तृप्त करते हैं तो वास्तव में भगवान को ही प्रसन्न कर रहे होते हैं। पूजा-पाठ, आरती और भोग तभी सार्थक हैं जब हमारे भीतर सेवा और करुणा का भाव हो।
जीव-जंतुओं का सम्मान करने वाला ही ईश्वर का सच्चा साधक
प्रेमानंद महाराज जी अपने प्रवचन में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि भक्ति केवल मंदिर की पूजा तक सीमित नहीं है। असली भक्ति सेवा और प्रेम है। भगवान केवल मूर्ति में ही नहीं बल्कि सृष्टि के हर अंश में हैं। जो भक्त सच्चे हृदय से जीव-जंतुओं का सम्मान करता है, वही ईश्वर का सच्चा साधक कहलाता है। भगवान को वस्तु की नहीं, भाव की आवश्यकता है। प्रेमानंद जी ने कहा कि नामदेव जी द्वारा ठाकुर जी के लिए बनाई गईं रोटियां साधारण थीं, लेकिन उनमें नामदेव जी का प्रेम और करुणा घुली हुई थी। (Premanand Ji Maharaj Satsang) यही कारण है कि विठ्ठल महाराज प्रकट हुए। इसलिए वस्तु की कीमत या गुणवत्ता सही मायनों में तब अधिक बढ़ जाती है जब उसमें कोमल भावनाओं का वास होता है।
संत प्रेमानंद का आधुनिक जीवन के लिए संदेश
प्रेमानंद जी वर्तमान समय में समाज में व्याप्त कुरीति पर लोगों को समझाते हुए कहा कि, आज की व्यस्त दुनिया में हम पूजा-पाठ तो खूब करते हैं। बड़ी बड़ी धार्मिक और सामाजिक सहायता संस्थाओं को बढ़-चढ़ कर दान भी देते हैं। लेकिन घर के बाहर बैठे भूखे और जरूरत मंद इंसान को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। किसी जानवर को भोजन देना या किसी गरीब की मदद करना हमें छोटा काम लगता है। जबकि यही कार्य असली पूजा है। प्रेमानंद जी कहते हैं कि करुणा सबसे बड़ा धर्म है। (Premanand Ji Maharaj Satsang) जब हमारे भीतर दया का भाव जागता है, तभी जीवन सार्थक होता है। प्रेमानंद जी ने कहा कि, सच्ची भक्ति को लेकर हर जीव से प्रेम की भावना जोड़ने का संदेश नामदेव जी की तरह अन्य संतों ने भी दिया है। जिसमें कबीर, तुलसी, मीरा और गुरु नानक सभी ने प्रेम और करुणा को भक्ति का सार बताया। भगवान श्रीराम ने शबरी के बेर स्वीकार किए और श्रीकृष्ण ने सुदामा का तिनके जैसा उपहार। यह सब उदाहरण बताते हैं कि भगवान को हमारे भाव की आवश्यकता है, न कि भव्य वस्तुओं की। प्रेमानंद जी का प्रवचन हमें यह गहरी शिक्षा देते हैं कि हर जीव में भगवान वास करते हैं। जब हम किसी प्राणी की सेवा करते हैं तो उसी क्षण हम भगवान की पूजा कर रहे होते हैं। मंदिर की आरती तभी पूर्ण होती है जब हमारे भीतर करुणा की लौ जल रही हो। सेवा और प्रेम ही भक्ति का सच्चा स्वरूप है और करुणा ही सबसे बड़ा धर्म है।
भक्ति केवल पूजा तक सीमित नहीं। (Premanand Ji Maharaj Satsang) भक्ति का असली स्वरूप सेवा, करुणा और प्रेम है। यदि पूजा के बाद हम जीव-जंतुओं और मनुष्यों के साथ सेवा और करुणा का धर्म निभाते हैं हमारी पूजा ईश्वर तभी स्वीकार्य होती है। संत कबीर भी कहते हैं कि,’प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय। चाहे घर में बास कर, चाहे बन को जाय।’